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सुप्रीम कोर्ट में लंबित है पूजा स्थल कानून की वैधानिकता

नई दिल्ली। पूजा स्थल (विशेष प्रविधान) कानून 1991 की वैधानिकता का मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। सुप्रीम कोर्ट ने कानून की वैधानिकता को चुनौती देने वाली भाजपा नेता और वकील अश्वनी कुमार उपाध्याय की याचिका पर गत वर्ष 12 मार्च को सरकार को नोटिस भी जारी किया था। नोटिस जारी होने के बाद यह मामला दोबारा सुनवाई पर नहीं लगा न ही इस मामले में सरकार ने अभी तक कोर्ट में अपना जवाब दाखिल किया है।
याचिका में उपाध्याय ने कई आधारों पर कानून की वैधानिकता को चुनौती है जिसमें प्रमुख रूप से कहा गया है कि यह कानून अदालत के जरिये अपने धार्मिक स्थलों और तीर्थाे को वापस पाने के अधिकार से वंचित करता है। कानून आक्रांताओं के गैर कानूनी कृत्यों को कानूनी मान्यता देता है। यह कानून हिन्दू ला के सिद्धांत कि मंदिर की संपत्ति कभी समाप्त नहीं होती चाहे बाहरी व्यक्ति वर्षों उसका उपयोग क्यों न करता रहा हो, भगवान न्यायिक व्यक्ति होते हैं, का उल्लंघन करता है।
कानून हिंदू, बौद्ध, जैन और सिखों को अपने पूजा स्थलों और तीर्थों का वापस कब्जा पाने से वंचित करता है जबकि मुसलमानों को वक्फ कानून की धारा सात के तहत ऐसा अधिकार मिला हुआ है। यह कानून भगवान राम और भगवान कृष्ण के बीच भेदभाव करता है इसमें राम जन्मस्थान को छोड़ दिया गया परन्तु मथुरा में कृष्ण जन्मस्थान को नहीं छोड़ा गया जबकि दोनों विष्णु के अवतार हैं। यह कानून अनुच्छेद 25 के तहत हिंदू, जैन बौद्ध और सिखों को धर्म के पालन और उसके प्रचार के मिले अधिकार को बाधित करता है। अनुच्छेद 26 में मिले धार्मिक स्थल प्रबंधन अधिकार को बाधित करता है। केंद्र को ऐसा कानून बनाने का अधिकार नहीं है क्योंकि संविधान में तीर्थ स्थल और पब्लिक आर्डर राज्य का विषय हैं।
पूजा स्थल कानून कहता है कि पूजा स्थलों की जो स्थिति 15 अगस्त 1947 में थी वही रहेगी। हालांकि इस कानून की परिधि से अयोध्या की राम जन्मभूमि को अलग रखा गया है। कानून कहता है अयोध्या राम जन्म भूमि मुकदमे के अलावा जो भी मुकदमे हैं, वे समाप्त समझे जाएंगे। यह कानून पूजा स्थल वापस पाने के दावे का मुकदमा दाखिल करने पर भी रोक लगाता है। सुप्रीम कोर्ट में इस कानून की वैधानिकता पर विचार होना मौजूदा परिस्थितियों में बहुत महत्वपूर्ण है।

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