कर्नाटक हाई कोर्ट का फैसला- एससी भूमि आवंटियों के वारिसों को 50 साल बाद मिलेगी जमीन
बेंगलुरु। कर्नाटक भूमि सुधार अधिनियम के तहत 1972 में चार-चार एकड़ जमीन पाने वाले अनुसूचित जाति के पांच लोगों के वारिस आखिरकार 50 साल बाद संपत्ति का सुख ले सकेंगे। इन अनुसूचित जाति के लोगों के तहत किरायेदार होने का दावा करने वाले दो श्संपन्न व्यक्तियोंश् ने किसी तरह समूचे 20 एकड़ पर अधिभोग अधिकार प्राप्त कर लिया था।
50 साल बाद कर्नाटक उच्च न्यायालय ने उपायुक्त को निर्देश दिया है कि जमीन के मूल आवंटियों श्मुनिथिम्मा, वरदा, मुनिस्वामी, मुनिस्वामप्पा और चिक्कागुल्लोनुश् के वारिसों को तीन महीने के अंदर जमीन पर कब्जा दिलाएं।
फैसले में अदालत ने कहा,‘यह मामला दर्शाता है कि कैसे दलित वगरें से संबंधित व्यक्तियों के पक्ष में संप्रभु शक्ति द्वारा दिए गए अनुदान पर अमीर और प्रभावशाली लोग कब्जा कर लेते हैं। भूमि न्यायाधिकरण, सहायक आयुक्त और उपायुक्त के आदेशों को रद करते हुए हाई कोर्ट ने कहा, समय-समय पर सर्वाेच्च न्यायालय ने माना है कि कानून और प्रक्रियाएं गरीब याचिकाकर्ता के वैध अधिकारों से वंचित करने के लिए संपन्न लोगों का साधन नहीं बननी चाहिए।श्
पांच दशकों तक अनुदान प्राप्तकर्ता और उनके कानूनी उत्तराधिकारियों ने भूमि न्यायाधिकरण और अन्य अधिकारियों के समक्ष यह मामला लड़ा था। जस्टिस आर. देवसास ने फैसले में कहा, श्इस तरह के मामले इस बात की कड़वी सच्चाई पेश करते हैं कि कैसे गरीबों को कानूनी उलझनों में और उलझा दिया जाता है।
कर्नाटक भूमि सुधार अधिनियम के तहत उपायुक्त द्वारा 1972 में देवनहल्ली के विश्वनाथपुरा गांव में मुनिथिम्मा, वरदा, मुनिस्वामी, मुनिस्वामप्पा और चिक्कागुल्लोनु को चार-चार एकड़ जमीन दी गई थी। दो व्यक्तियों श्बायरप्पा और पिल्लप्पाश् ने 1976 में दावा किया कि वे पांच मूल अनुसूचित जाति अनुदानकर्ताओं के तहत किरायेदार थे और पूरे 20 एकड़ के लिए अधिभोग अधिकार की मांग की।
भूमि न्यायाधिकरण ने 1980 में उनके पक्ष में फैसला सुनाया। आदेश को हाई कोर्ट ने रद कर मामला वापस न्यायाधिकरण को भेजा। भूमि न्यायाधिकरण ने 1993 में अन्य आदेश में फिर दावेदारों के पक्ष में फैसला सुनाया। इस आदेश को हाईकोर्ट में दी गई चुनौती 1997 में खारिज हुई। मूल अनुसूचित जाति अनुदान प्राप्तकर्ताओं के उत्तराधिकारियों का कर्नाटक एससी व एसटी (भूमि हस्तांतरण का निषेध) अधिनियम के तहत किया दावा भी खारिज हो गया। मूल अनुदानकर्ताओं के उत्तराधिकारियों ने 2014 में फिर से हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।