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आतंकियों-नक्सलियों के निशाने पर सुरक्षा बल, हिंसा में कमी के बावजूद लगातार बनी हुई है चुनौती

नई दिल्ली। नक्सल इलाकों या कश्मीर में आतंक का शिकार इलाकों में हिंसा के आंकड़ों में सुधार नजर आता है। लेकिन नक्सलरोधी और आतंक रोधी ऑपरेशन में सुरक्षा बलों के जवान निशाने पर बने हुए हैं। अधिकारियों का कहना है कि अपने मकसद में असफल हो रहे आतंकी या उग्रवादी सुरक्षा बल के जवानों को हताशा में निशाना बनाते हैं।
नक्सल इलाकों में अर्धसैन्य बल के जवान निशाने पर होते हैं, वही जम्मू कश्मीर में पिछले कुछ सालों में स्थानीय पुलिस आतंकियों का सॉफ्ट टारगेट बनी है। सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ में पिछले तीन साल में क्रमशः 22, 38 और 46 जवानों की मौत हुई है। यह आंकड़ा क्रमिक रूप से बढ़ा है। हालांकि वर्ष 2009 और वर्ष 2010 से तुलना करें तो यह बहुत कम है। उस दौर में सुरक्षा बल के 147 और 197 जवानों की मौत हुई थी।
धुर नक्सल इलाकों में ऑपरेशन की कमान संभाल चुके बीएसएफ के पूर्व एडीजी पी के मिश्रा ने इस बारे में जानकारी दी। उन्होंने कहा कि आतंकी इलाके या नक्सल के गढ़ में सुरक्षा बल आक्रामक अभियान चला रहे हैं, उसकी वजह से जवानों की मौतें पूरी तरह नहीं थम रही हैं। हालांकि यह आंकड़ें उतार-चढ़ाव वाले हैं और एक जैसा रुझान नहीं दिखता है।
सभी नक्सल इलाकों को मिला लें तो वर्ष 2019 में सुरक्षा बल के 52 जवानों की मौत हुई थी। वर्ष 2020 में 43 और वर्ष 2021 में 50 जवानों की मौत हुई। हालांकि, वामपंथी उग्रवाद संबंधी हिंसा में लगातार कमी आई है। 2009 में 2258 के उच्चतम स्तर से कम होकर 2021 में 509 हो गई। इसी प्रकार परिणामी मौतें सिविलियन और सुरक्षा बल को मिलाकर 2010 में 1005 के उच्चतम स्तर से 85 प्रतिशत कम होकर 2021 में 147 हो गईं।
जम्मू कश्मीर में पिछले साल घाटी में कुल 42 सुरक्षा कर्मियों की मौत हुई थी, जिनमें से 21 जम्मू-कश्मीर पुलिस के कर्मी थे। अनुच्छेद 370 को निरस्त करने से तीन साल पहले घाटी में आतंकी घटनाओं में 290 सुरक्षा बल के जवान मारे गए थे। जबकि 2019 से 2021 के दौरान यह संख्या घटकर 174 हो गई। जहां तक आतंकवादी हमलों जैसी अन्य घटनाओं में नागरिकों की हत्याओं का संबंध है तो संख्या 2019 में 191 से घटकर 2021 में 110 हो गई। 2014 में जम्मू-कश्मीर में आतंकी हमलों में 47 जवानों ने जान गंवाई थी, जबकि 2018 में 91 जवान शहीद हुए थे।

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